कई चरणों में चुनाव देश के लिए कितना बोझिल? जानें

लंबे चुनावी चरण का सबसे बड़ा असर सरकारी कामकाज पर पड़ता है, जिससे आम आदमी सीधे तौर पर प्रभावित होता है।

Apr 18, 2024 - 11:30
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कई चरणों में चुनाव देश के लिए कितना बोझिल? जानें

नई दिल्ली (आरएनआई) देश में 18वीं लोकसभा के गठन के लिए चुनाव प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। 543 लोकसभा सीट के लिए चुनाव सात चरणों में होंगे। 19 अप्रैल को पहले चरण की वोटिंग होगी, जबकि आखिरी चरण एक जून को खत्म होगा। वहीं चुनाव नतीजे 4 जून को आएंगे। चुनावी प्रक्रिया को पूरा होने में 46 दिन लगेंगे। कुछ राज्यों में तो मतदान एक ही में पूरा हो जाएगा, लेकिन कुछ राज्यों में यह सात चरणों तक चलेंगे। 

लंबे चुनावी चरण का सबसे बड़ा असर सरकारी कामकाज पर पड़ता है, जिससे आम आदमी सीधे तौर पर प्रभावित होता है। पूर्व चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी कहते हैं कि चुनाव आयोग को अपनी रणनीति बदलनी चाहिए। अगर वह चाहे तो एक महीने से भी कम समय में चुनाव करवा सकता है और पहले भी कम चरणों में चुनाव होते रहे हैं।    

2019 के लोकसभा चुनाव की बात करें, तो उस दौरान 11 अप्रैल से 19 मई के बीच सात चरणों में चुनाव प्रक्रिया चली थी और वोटों की गिनती 23 मई को हुई थी। कुल मिला कर 38 दिनों में पूरी चुनाव प्रक्रिया खत्म हो गई। हालांकि, 2024 में चुनावी प्रक्रिया खत्म होने में 46 दिन लगेंगे। यह दूसरी बार होगा जब चुनावी प्रक्रिया में इतनी लंबा वक्त लग रहा है। इससे पहले पहले साल 1951-52 में पहला संसदीय चुनाव चार महीने तक चला था, जो 25 अक्तूबर 1951 से लेकर 21 फरवरी 1952 तक चले थे। उस दौरान चुनाव 68 चरणों में हुए थे। जिसे भारतीय इतिहास में सबसे लंबी चुनावी प्रक्रिया कहा जा सकता है।

वहीं, सबसे कम समय के लिए वोटिंग साल 1980 में हुई थी, जो महज चार दिन तक चली थी। वहीं 1957 में दूसरे आम चुनाव में, यह प्रक्रिया 19 दिनों तक चली थी, जो 1962 में घटकर सात दिन और 1967 में घटकर पांच दिन रह गई। 1971 में यह अंतराल बढ़कर 10 दिन हो गया, लेकिन 1977 में फिर से घटकर पांच दिन और फिर चार दिन हो गया। 1980, 1984 और 1989 के चुनावों में भी मतदान की अवधि पांच-पांच दिन थी। 1991 के चुनावों में, मतदान का पहला चरण 20 मई को शुरू हुआ, तीसरा और अंतिम चरण 15 जून को समाप्त हुआ, जिसके परिणामस्वरूप 27 दिनों का अंतराल हुआ। इसके बाद, 1996 में यह अंतर बढ़कर 34 दिन हो गया, जो 1998 में घटकर केवल आठ दिन रह गया। 1999 में पहले और आखिरी चरण के मतदान के बीच का अंतर 32 दिन था, जबकि 2004 में यह 22 दिन, 2009 में 28 दिन और 2014 में 36 दिन था।

चुनाव आयोग के सूत्रों का कहना है कि मतदान की तारीखें तय करने में इलाकों का भूगोल काफी अहम होता है। अभी भी उत्तर भारत के उच्च हिमालयी इलाकों में बर्फबारी और निचले इलाकों में बारिश हो रही है। ऐसे में इन इलाकों में मतदान प्रक्रिया को संपन्न कराना काफी दुष्कर होता है। जैसे उत्तराखंड और नॉर्थ ईस्ट में 19 अप्रैल को वोट डाले जाएंगे, तो 19 अप्रैल, 26 अप्रैल, 13 मई और 20 मई को जम्मू-कश्मीर के साथ लद्दाख में वोट डाले जाएंगे। हिमाचल प्रदेश में सातवें चरण यानी 1 जून को वोट डाले जाएंगे। सूत्र कहते हैं कि पहाड़ों में बर्फ पिघलने के साथ ही आवागमन आसान हो जाता है और वोटिंग प्रक्रिया निर्बाध रूप से संपन्न हो जाती है। 

पूर्व चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी कहते हैं कि हम पहाड़ी इलाकों में होने वाली दिक्कतों को समझ सकते हैं, लेकिन महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश समेत दूसरे मैदानी इलाकों में तो एक ही चरण में चुनाव कराए जा सकते थे। उन्हें इतना लंबा ले जाने की जरूरत नहीं थी। वह कहते हैं कि आज से 20-25 साल पहले बिहार, उत्तर प्रदेश में चुनावों के दौरान हिंसा होती थी, तो तत्कालीन चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने पैरामिलिट्री फोर्सेज भेजना शुरू कर दिया और 'ब्लड फ्री इलेक्शन' होने लगे। बाद में बाकी राज्यों के राजनीतिक दल भी पैरामिलिट्री की मांग करने लगे, जिससे चुनाव लंबे खिंचने लगे।  

एसोशिएन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) से जुड़े रिटायर्ड मेजर जनरल अनिल वर्मा कहते हैं कि लंबे चरण में चुनाव होने की एक प्रमुख वजह सुरक्षा व्यवस्था भी है। संवेदनशील इलाकों में सीआरपीएफ की मांग बढ़ गई है। वह कहते हैं कि पहले नक्सलवाद और आतंकवाद नहीं था, तो इसलिए चुनाव जल्द खत्म हो जाया करते थे। अब सुरक्षा व्यवस्था काफी अहम हो गई है। वह कहते हैं कि चुनाव आयोग को राज्य की पुलिस पर भरोसा नहीं होता है। इसलिए वे केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती करती है, जो किसी एक राज्य से जुड़े नहीं होते हैं और इससे फेयर इलेक्शन का चांसेज बढ़ जाते हैं।   

वहीं पूर्व चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी कहते हैं कि सरकार खुद कहती है कि जम्मू-कश्मीर में तो अब आतंकवाद का दौर खत्म हो गया है। वहां से तो अब हमारे सुरक्षा बलों को वापस बुलाया जाने लगा है। वहीं छत्तीसगढ़ में भी अब पहले की नक्सली हिंसा नहीं है, तो ऐसे में वहीं इतनी फोर्सेज तैनात करने की जरूरत क्या है। वह कहते हैं कि चुनाव आयोग को चाहिए कि बिना किसी दबाव के वह अपनी रणनीति में बदलाव करे।

चुनाव आयोग के सूत्रों का कहना है कि त्योहारों का भी चुनावी प्रक्रिया पर बड़ा असर पड़ता है। इसका सबसे ताजा उदाहरण पिछले साल हुआ राजस्थान विधानसभा का चुनाव है। उस दौरान चुनाव आयोग ने राजस्थान में मतदान की तारीख 23 नवंबर तय की थी, जिसे बाद में 25 नवंबर किया गया, क्योंकि 23 नवंबर को देवउठनी एकादशी (अबूझ सावे) थी, और उस दिन हजारों शादियां थीं। मतदान की तिथि बदलने के लिए राजस्थान के कई हिस्सों से वरिष्ठ नागरिकों, युवाओं, संगठनों और आम जनता ने चुनाव आयोग को पत्र लिखा था। ऐसा ही 2022 के पंजाब विधानसभा चुनावों में भी हो चुका है, जब वहां मतदान के लिए 14 फरवरी को होना था, लेकिन उस दिन संत रविदास जयंती थी, और वोटिंग की तिथि आगे बढ़ाने के लिए तमाम राजनीतिक दलों ने पत्र लिखा था, जिसके बाद मतदान की तिथि को 20 फरवरी 2022 किया गया। इस साल भी मार्च से लेकर अप्रैल तक कई त्योहार बीच में पड़े हैं। हाल ही में रमजान और उसके बाद नवरात्र शुरू हो गए। अगर पहले वोटिंग होती तो त्योहारों के चलते इसका असर मतदान पर भी पड़ता। इसलिए पहले चरण की वोटिंग रामनवमी के बाद 19 अप्रैल को शुरू होगी।  

चुनाव आयोग के सूत्र कहते हैं कि अगर चुनाव फरवरी-मार्च में कराए जाते हैं, तो उस दौरान कई राज्यों में छात्रों की बोर्ड परिक्षाएं चल रही होती हैं। टीचर्स के साथ पेरेंट्स भी बच्चों के एग्जाम में व्यस्त होते हैं। मतदान संपन्न कराने में टीचर्स का बहुत योगदान होता है। 19 अप्रैल को होने वाले मतदान की पर्चियां बांट रहे गाजियाबाद के एक सरकारी स्कूल के शिक्षक पुरषोत्तम बताते हैं कि पहले परीक्षाओं में व्यस्त थे, उसके बाद कापियां जांचने में और अब वोटिंग लिस्ट में सुधार के बाद पर्चियां बांटने में लगे हैं। घर-घर जाना पड़ रहा है, सुबह ही निकल जाते हैं और रात तक ही वापस घर लौट पाते हैं। लंच पैक करवा कर निकलते हैं, जहां रास्ते में जगह मिलती है, खा लेते हैं। कई बार तो घरों से पीने के लिए पानी मांगने तक की नौबत आ जाती है। माथे से पसीना पोंछते वह कहते हैं कि ऐसे वे अकेले नहीं हैं, उनके साथ स्कूल के प्रधानाचार्य समेत बाकी का भी स्टाफ है, सभी की यही हालत है। वहीं अगर वोटिंग प्रक्रिया जून तक खिंचती तो उस दौरान न केवल गर्मी अपने चरम पर होती बल्कि स्कूलों की गर्मियों की छुट्टियां भी हो जातीं। अधिकांश पेरेंट्स और नए युवा वोटर घूमने निकल जाते, जिसका असर वोटिंग प्रतिशत पर पड़ता। 

चुनाव आयोग का कहना है कि इस बार मतदान केंद्रों की संख्या 10.48 लाख हो गई है, जो 2019 में 10.35 लाख थी। मतदान में 1.5 करोड़ मतदान और सुरक्षा अधिकारी, 55 लाख ईवीएम और चार लाख वाहन शामिल होंगे। इतना सब मैनेज करने के लिए बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों की जरूरत पड़ती है, जिन्हें लाना-ले जाना आसान नहीं होता। सुरक्षा बलों को दो चुनाव चरणों के बीच आने-जाने और पुनः तैनाती के लिए कम से कम छह दिनों की जरूरत होती है। लोकसभा चुनाव और चार राज्यों के विधानसभा चुनावों में राज्य पुलिस फोर्स के साथ-साथ 3.4 लाख सीएपीएफ जवानों की भी तैनाती की जाएगी। पश्चिम बंगाल में 92,000 सीएपीएफ कर्मियों तैनात किए जा सकते हैं, जबकि जम्मू-कश्मीर में यह संख्या 63,500 कर्मियों की होगी। नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़ में 36,000 जवानों की तैनाती होगी, यहां तीन चरणों में वोटिंग होगी।

रिटायर्ड मेजर जनरल अनिल वर्मा के मुताबिक मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट लागू हो जाता है और ज्यादा लंबे चरण होने से सरकारों का सामान्य कामकाज रुक जाता है और इतने लंबे समय तक सरकार के कामकाज को रोके रखना गलत है। सरकारी मशीनरी पूरी तरह से चुनावों में लग जाती है, इससे प्रोजेक्ट ठप पड़ जाते हैं और आम आदमी के हित के काम नहीं हो पाते हैं। 

वहीं विपक्षी दल भी आरोप लगाते हैं कि सत्ता पक्ष को अपने खिलाफ सत्ता विरोधी लहर को खत्म करने का पूरा वक्त मिल जाता है। कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने आरोप लगाया था कि इसे तीन या चार चरणों में पूरा किया जा सकता था। उन्होंने चिंता जताते हुए कहा था कि अधिकांश सरकारी काम कम से कम 4 जून तक रुक जाएंगे। करीब 70-80 दिनों तक सारे काम रोकने से देश कैसे आगे बढ़ेगा? चुनाव आचार संहिता के कारण सामग्री की आपूर्ति नहीं होगी और बजटीय खर्च भी नहीं होगा। इसलिए मेरे हिसाब से यह फायदेमंद नहीं है।

एसवाई कुरैशी कहते हैं कि चुनाव आयोग जिस तरह से सात चरणों में वोटिंग करा रहा है, उससे निश्चित तौर पर तमाम चुनौतियों से निपटने में आयोग को मदद मिलती है, लंबा चुनाव होने का सियासी फायदा सत्ता पक्ष को मिल सकता है। उसे ज्यादा रैलियां, सभाएं करने का समय मिलता है। वह कहते हैं कि चुनावी प्रक्रिया को छोटा किया जाना चाहिए। प्रक्रिया जितनी लंबी होगी, सत्तारूढ़ दल के लिए प्रचार के लिए सरकारी बुनियादी ढांचे का उपयोग करने का उतना ही अधिक मौका होगा। 

एसवाई कुरैशी कहते हैं कि चुनाव आयोग यद दावे करता है कि लंबे चरण का चुनाव देश के लिए फायदेमंद है, लेकिन इसके बड़े नुकसान भी हैं। आजकल सड़कों से ज्यादा चुनावी जंग सोशल मीडिया पर लड़ी जा रही है। सोशल मीडिया अफवाहें फैलाने में अव्वल है और फेक न्यूज को बोलबाला है, जो चुनाव के लिए नुकसानदायक है। वह कहते हैं कि लंबे चरण में चुनाव होने से सोशल मीडिया पर चल रहीं अफवाहों का असर अगले चरण पर पड़ता है। इससे दंगे भड़क सकते हैं। एक राज्य में अगर एक बार में ही चुनाव हो जाए तो कम चुनावी चरण होंगे तो अफवाहें कम फैलेंगी और चुनाव शांतिपूर्ण संपन्न होंगे। 

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